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देह से भस्म छुड़ाई, हल्दी लगा काशी इतराई; काशी विश्वनाथ को लगाया ठंडई, पान और मेवे का भोग

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वाराणसी:    बाबा भोले शंकर का स्मरण आते ही आंखों के सामने जटा-जूट, भस्मधारी की छवि आंखों में तैर जाती है। यह काशी ही है जो अपनी नगरी के अधिपति, अपने बाबा श्रीकाशी विश्वनाथ को चाहे जिस रूप में सजाती है। संपूर्ण जीव-जगत को मंगल का आशीष देने वाले देवाधिदेव की मंगल के गीत गाती है। उनकी नजर भी उतारती नजर आती है। यह दृश्य जीवंत हुआ महाशिवरात्रि महोत्सव से जुड़े अनुष्ठान के क्रम में गुरुवार को हल्दी-तेल की रस्म में।

टेढ़ी नीम स्थित महंत आवास पर सायंकाल बाबा के रजत विग्रह का दूल्हे की तरह रच-रच कर राजसी स्वरूप में नख-शिख शृंगार किया गया। बाबा को ठंडई, पान और मेवे का भोग समर्पित कर आरती उतारी गई। इसके महिलाओं ने बाबा के तन से भस्मी छुड़ाई।

लोकाचार अनुसार हल्दी-तेल लगाया और देवाधिदेव के विवाह की रस्म में भागीदारी कर निहाल हो गईं। इसके साथ साथ गवनहरियों की टोली ने ‘दुल्हा के देहीं से भस्मी छोड़ावा सखी हरदी लगावा ना…’, ‘शिव दुलहा के माथे पर सोहे चनरमा…’, ‘अड़भंगी क चोला उतार शिव दुल्हा बना जिम्मेदार…’, ‘भोले के हरदी लगावा देहिया सुंदर बनावा सखी…’ समेत लोक के गीतों को स्वर दिया और भावों से भर दिया।इन पारंपरिक शिव गीतों में दूल्हे की खूबियों का बखान किया तो दुल्हन का ख्याल रखने की ताकीद भी कर डाली। ढोलक की थाप और मंजीरे की खनक के बीच शिव-पार्वती के मंगल दाम्पत्य की कामना पर आधारित गीतों में विवाह के लिए की जा रही तैयारियां का उल्लेख तो आया ही नंदी, सृंगी, भृंगी आदि गणों के नाच-नाच कर सारा काम करने का दृश्य समाया। दूल्हा शिव के लिए सेहरा और दुल्हन पार्वती के लिए तैयार की जा रही मौरी का क्रम भी समाया।हल्दी की रस्म के बाद ‘साठी क चाऊर चूमिय चूमिय…’ गीतों के बीत एक-एक कर महिलाओं ने पंचबदन रजत प्रतिमा को चावल से चूम कर दूल्हा बने त्रिपुरारी की नजर उतारी। इस खास मौके पर आयोजित शिवांजलि में पुनीत पागल बाबा ने ‘पहिरेला मुंडन क माला मगर दुल्हा लजाला…’ जैसे गीतों को स्वर दिया। आशीष सिंह ने ‘अर्धांग भस्म भभूत सोहे अर्ध मोहिनी रूप है…’ पर कथक के भाव सजाए। ‘कैसी ये धूम मचाई बिरज में…’ से शिव भक्ति गंगा को प्रवाह दिया। महंत डा. कुलपति तिवारी के सानिध्य में रस्म पूरी की गई।

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